Dwarpal

द्वारपाल 
रावण, कुंभकर्ण, हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष | कौन है ये ? भक्त या शत्रु ? इनके जन्म का रहस्य क्या है ? हमारे पिछले जन्म की कहानी तो हम नहीं जानते | लेकिन इनके पूर्वजन्म की कहानी जरूर पढ़िए | 



सनकादि मुनि 
सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार इन ४ मुनियों को सनकादि मुनि कहा जाता है | ये ब्रम्हाजी के आदि मानसपुत्र थे |  ये देवताओं के भी पूर्वज थे और ब्रम्हचर्य से युक्त थे | और समस्त लोकों में आकाश मार्ग से विचरते थे | 

एक बार वे भगवान विष्णु के दर्शन हेतु वैकुण्ठ लोक पहुंचे | वैकुण्ठ में अनेक दर्शनीय चीजे थी | उन पर ध्यान न देते हुए सीधे आगे बढ़ रहे थे | वे चारों वैकुण्ठ धाम की छह डयोढ़िया पार करके सातवी पर आए | तब उन्होंने हाथ में गदा लिए हुए दो द्वारपालों को द्वार पर देखा | वो दोनों आयु में समान लग रहे थे | ये भगवान विष्णु के जय-विजय नामक द्वारपाल थे | उन द्वारपालों को बिना पूछे ही सनकादि मुनि द्वार से अंदर जाने लगे क्योंकि आज तक उन्हें कही पर भी प्रतिबंध नहीं हुआ था | उनकी दृष्टी सर्वत्र समान थी और वे निशंक होकर बिना किसी रोक टोक के सर्वत्र विचरते थे | सृष्टि में सबसे बड़े होने पर भी सनकादि मुनि अपने तप के प्रभाव से दिखने में केवल पांच वर्ष के बालकों की तरह लग रहे थे | उन द्वारपालों ने बालक समझकर सनकादि की हंसी उड़ाते हुए उन्हें द्वार पर ही रोक लिया और अंदर जाने से मना कर दिया | तब प्रभु के दर्शन में विघ्न पड़ने के कारण मुनि कुछ क्रोधित से हुए | 

जय-विजय को श्राप 
सनकादि जय-विजय से कहने लगे, इस लोक में रहनेवाले सारे लोग तो भगवान के समान ही समदर्शी होते हैं और तुम दोनों तो भगवान विष्णु के पार्षद हो फिर तुम्हारे स्वभाव में यह विषमता क्यों है | तुम स्वयं कपटी हो इसलिए अपने जैसा ही दूसरों को समझते हो | यहाँ तो सभी भक्त हैं फिर तुम शंका किस पर लेते हो ? तुम्हारे इस अपराध के लिए हम तुम्हें श्राप देते हैं | 
"श्रीहरि के इस लोक में भेदभाव नहीं है, फिर भी तुमने भेददृष्टि रखी | भगवान के समीप रहने पर भी तुम दोनों में अहंकार आ गया है | इसलिए ये लोक छोड़कर मृत्युलोक में पापमय योनियों में जाओ |"

जय विजय ने जान लिया के ये पूज्य पुरुषों में श्रेष्ठ सनकादि मुनि है | इसलिए घबराकर दोनों सनकादि के चरणों में गिर पड़े | और उन्हों ने मुनियों से अनुरोध किया के "अधम योनियों में जन्म लेने पर भी हमारी भगवत्स्मृति नष्ट न हो |" 
तब उन दयालु मुनियों ने कहा-
"तुम्हारे ३ जन्म पुरे होते ही श्राप की पूर्ति होगी और तुम दोनों फिर से वैकुण्ठ लौट आओगे | 

भगवान नारायण का आगमन 

भगवान नारायण लक्ष्मी सहित अपने भक्तों के स्वागत के लिए पधारे | भगवान को देखकर सनकादि मुनियों को बड़ा हर्ष हुआ | उन्हों ने प्रभु को सिर झुकाकर प्रणाम किया | तब श्रीहरि विष्णु ने कहा-
"जय और विजय ये दोनों मेरे पार्षद हैं | इन्होंने जो आपका अपमान किया है, उसे मैं अपना ही किया हुआ मानता हूँ | इसलिए इनकी ओर से मैं आपसे क्षमा याचना करता हूँ | आपने जो इन्हें दंड दिया है वो उचित है |"
भगवान के इस प्रकार मनोहारी और उदारता से भरे वचन सुनकर सनकादि मुनियों का क्रोध शांत हुआ | उन्हों ने भगवान् से कहा-
"हे प्रभु, इन द्वारपालों को आप जैसा उचित समझे वैसा दंड दे अथवा इन्हें अधिक पुरस्कार दे | आप जो करेंगे वो सबकुछ हमें मान्य है | यदि आपको लगता है, के हमने आपके निरपराध पार्षदों को श्राप दिया है, तो उसके लिए हमें दण्डित करें | वह भी हमें सहर्ष स्वीकार है |"
तब भगवान ने कहा-
"आपने जो इन्हें श्राप दिया है, वो मेरी ही प्रेरणा से हुआ है | क्योंकि इन दोनों में अहंकार आगया था | अब ये दैत्य योनि को प्राप्त होंगे और वहा क्रोध आवेश से बढ़ी एकाग्रता के कारण भक्ति योग से पुनः मुझे ही प्राप्त होंगे |"
फिर सनकादि मुनियों ने भगवान और वैकुण्ठ के दर्शन किये और लौट गए | 

सनकादि के जाने के बाद भगवान ने अपने द्वारपालों से कहा-

"जाओ, तुम्हारा कल्याण होगा | मैं सबकुछ करने में समर्थ हूँ लेकिन मैं ब्रम्हश्राप का मान रखना चाहता हूँ | और ये मेरी ही इच्छा से हुआ है | क्योंकी एक बार जब मैं योगनिद्रा में था तब द्वार में प्रवेश करती हुई लक्ष्मी जी को भी तुम दोनों ने रोका था | तब तुम्हारे व्यवहार से क्रोधित होकर उन्होंने यही भविष्य कथन किया था | दैत्य योनि में मेरी विरोधाभक्ति करने से तुम दोनों श्राप से मुक्त होकर पुनः मेरे पास लौट आओगे |"

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन 
जय-विजय पतन पाकर मृत्युलोक (पृथ्वी पर) दिति के गर्भ में प्रविष्ट हुए | और आदि दैत्यों का जन्म हुआ | 

जय-विजय के जन्म 

१. सत्ययुग में दोनों दिति और कश्यप के पुत्र हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष बने | ये दोनों दैत्य थे | भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकशिपु और वराह अवतार में हिरण्याक्ष का वध किया | 

२. त्रेतायुग में इनका दूसरा जन्म रावण और कुंभकर्ण के रूप में हुआ | इस जन्म में वे दोनों राक्षस थे तथा कैकसी और विश्रवा के पुत्र थे | तब भगवान् विष्णु ने राम अवतार लेकर दोनों का वध किया | 


३. द्वापर युग में दोनों शिशुपाल और दंतवक्र के रूप में क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए | इस तीसरे जन्म में वे मानव थे | और श्रीकृष्ण की बुआ के पुत्र थे | भगवान् विष्णु के पूर्णावतार श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन से उनका वध किया | सुदर्शन चक्र के स्पर्श से वे श्रापमुक्त होकर फिर से श्रीहरि के वैकुण्ठ को प्राप्त हुए | 


इसप्रकार वे एक जन्म से अगला जन्म लेते हुए अधिकाधिक भगवान के समीप पहुंचे (दैत्य-राक्षस-मानव और बाद में देवता) और पुनः अपने स्वस्थान चले गए | तीव्र वैरभाव के कारण वे निरंतर भगवान नारायण के ध्यान में रहते थे | शत्रुभाव से भगवान् का ही सदैव चिंतन किया करते थे | उसी तीव्र तन्मयता के कारण जय विजय ने पुनः अपना स्थान प्राप्त किया | 


सुदृढ़ वैरभाव से अथवा भक्ति से, भय, स्नेह अथवा कामभाव से कैसे भी हो भगवान में अपना मन लगा देना चाहिए | भगवान की दृष्टी से इन भावों में कोई भेद नहीं | तीव्र काम से गोपी, भय से कंस, शिशुपाल-दन्तवक्र आदि राजा द्वेष से, स्नेह के कारण पांडव और भक्तिभाव से नारद, प्रल्हाद आदि भक्त भगवान का नित्य ध्यान करके भगवत्स्वरूप को प्राप्त हुए | 


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संदर्भ -
श्रीमद भागवत महापुराण 
विष्णु पुराण 
पद्म पुराण 
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© पूजा लखामदे  2020
Instagram - indian_epic_art

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