Meerabai
मीराबाई
मेड़ता, राजस्थान
कुड़की
मीराबाई की माता
बचपन में मीरा का लगाव अपनी माँ, अपने चचेरे भाई जयमल और सखी ललिता से अधिक था | परंतु मीरा की छोटी उम्र में ही उनकी माँसा का देहांत हो गया |
विवाह
राणा विक्रमादित्य और राणा उदयसिंह दोनो मीराबाई के देवर थे | कुछ वर्ष पश्चात विक्रमादित्य गद्दी पर आये |
राणा विक्रमादित्य
कुंभश्याम मंदिर, चितौड़गढ़
मीरा का चितौड़ त्याग
मीरा के बड़े पिता राव वीरमदेव को जब महाराणा विक्रमादित्य के षडयंत्रों के बारे में सूचनाए मिली, तब उन्होंने मीरा को मेड़ते बुला लिया |
चितौड़ का दूसरा साका - वि. सं. १५९१
गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने एक विशाल सेना के साथ चितौड़ पर आक्रमण किया था | उस वक्त रानी कर्णावती के नेतृत्व में तेरा हजार वीरांगनाओं ने जौहर किया | यह निश्चित है, के दूसरे साके के समय मीराबाई चितौड़ में नहीं थी | क्योंकि इस जौहर में किले में रहने वाली स्त्रियों में से एक भी नहीं बची थी |
मीराबाई मेड़ता एक-दो वर्ष ही रह पाई थी क्योंकि जोधपुर के शासक राव मालदेव ने मेड़ता पर आक्रमण कर वीरमदेव से मेड़ता छीन लिया | फिर मीरा वृंदावन चली गई | वहा एक ब्रम्हचारी ने कहा - " मैं स्त्रियों का मुख नहीं देखता हूँ |" उस पर मीरा ने उत्तर दिया - "वाह महाराज ! अभी तक स्त्री पुरुष में ही उलझे हो, समदृष्टि नहीं हुए |"
मीराबाई भक्त होने के साथ साथ ज्ञानी और बुद्धिमान भी थी | उन्होंने भक्ति पदों की रचनाएँ की थी |
वृंदावन में कुछ दिन रहने के बाद मीरा द्वारिका गई |
मीरा को वापस लाने हेतु प्रयत्न
वीरमदेव को मेड़ता पुनः मिलते ही यह प्रयत्न आरंभ किया गया था | किन्तु राव वीरमदेव की अचानक मृत्यु हो जाने पर यह कार्य उनके ज्येष्ठ पुत्र राव जयमल ने किया | उन्होंने अपनी बहन को लाने हेतु मेड़ता से आदमी भेजे थे | उधर चितौड़ के राजसिंहासन पर भी महाराणा उदयसिंह (महाराणा प्रताप के पिता) विराजमान हो गए थे | इनके और राव जयमल के बहुत अच्छे संबंध थे | राणा उदयसिंह ने भी अपनी भाभी को चितौड़ लाने हेतु आदमी भेजे थे | किंतु मीरा न तो चितौड़ लौटी न ही मेड़ता |
मीराबाई की मृत्यु (वि. सं. १६०४)
मीराबाई ने अपने अंतिम दिन द्वारिका में व्यतीत किये | मीराबाई द्वारका के मंदिर में भजन कर रही थी | भजन की अंतिम पंक्ति गाने से पूर्व मीरा ने इकतारा अपनी सखी के हाथ में थमाया और गति हुई गर्भ गृह के भीतर चली गई और भगवान की मूर्ति में समा गई | इस घटना के बाद मीराबाई को नहीं देखा गया |
राजसी ठाठ-बाठ त्याग कर मीराबाई ने भक्तिमार्ग का चयन किया था और अपना जीवन भगवान को समर्पित कर दिया | इनके द्वारा रचित भजन आज भी उत्तर भारत में बड़े लोकप्रिय हैं |
१६वी शताब्दी की संत कवयित्री | इनकी कृष्ण भक्ति तो जगप्रसिद्ध है | मीराबाई का युग भक्ति, युद्ध और राजनीती का ऐतिहासिक युग रहा | राजकुमारी होकर भी इन्हें अपने जीवन में अनेक कष्ट उठाने पड़े | और मृत्यु भी ऐसे हुई के सदा के लिए अमर बन गई |
मेड़ता, राजस्थान
मीरा का जन्म वि. सं. १५५५ को मेड़ता, राजस्थान में राठौड़ राजघराने में हुआ | मीरा राव दूदा जी के पुत्र रतनसिंह की पुत्री थी | मीरा के दादा जी राव दूदा, काका वीरमदेव तथा जयमल ये सब परम वैष्णव भक्त कहे जाते हैं | इसलिए भगवत भक्ति के संस्कार उसपर बचपन से ही हुए थे | एक बार बचपन में एक साधु ने मीरा को भगवान कृष्ण की मूर्ति दे दी | तब से मीरा का रिश्ता आजीवन के लिए भगवान कृष्ण से जुड़ गया |
कुड़की
बाद में रतनसिंह अपने परिवार सहित कुड़की में रहने लगे | कुड़की मेड़ता से १८ मिल की दुरी पर स्थित है | यहाँ मीरा के बचपन का अधिकांश काल बीता | रतनसिंह ने कुड़की में छोटा दुर्ग बनवाया जो आज भी विद्यमान है | इस दुर्ग में मीराबाई का महल और एक छोटासा मंदिर भी है |
मीराबाई की माता
बचपन में मीरा का लगाव अपनी माँ, अपने चचेरे भाई जयमल और सखी ललिता से अधिक था | परंतु मीरा की छोटी उम्र में ही उनकी माँसा का देहांत हो गया |
विवाह
मीराबाई का विवाह चितौड़गढ़, मेवाड़ के कुँवर भोजराज से हुआ | भोजराज सिसोदिया वंशज राणा सांगा के पुत्र थे | मीरा के ससुर महाराणा सांगा एक महान वीर योद्धा थे |
ससुराल में मीरा अपने साथ भगवान की मूर्ति भी ले आई थी | विवाह के कुछ वर्ष पश्चात ही युवराज भोजराज की मृत्यु हुई और मीरा विधवा हो गई | अब मीरा ने एकदम से विरक्त होकर संसार का ध्यान छोड़ दिया और अपने सारे संबंध हटाकर हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगी | मीरा रात दिन कृष्ण मूर्ति की पूजा और सेवा किया करती थी | मूर्ति से बाते करना, मूर्ति का श्रृंगार करके उसके आगे नाचना और गाना, ये सब मीरा की भक्ति की साधना थी | लोकलाज और कुल की मर्यादा छोड़कर मीरा मंदिरों में जाती और वहा एकतारा बजाकर हरी कीर्तन करते हुए भक्ति में डूब कर नाचती और गाती रहती थी | मीरा की ये हरकतें उनके शाही ससुराल वालों को पसंद नही थी |
खानवा का युद्ध
इस युद्ध में मीराबाई के पिता, काका और ससुर की मृत्यु हुई थी | यह युद्ध वि. सं. १५८४ में चितौड़ नरेश राणा सांगा और मुग़ल बादशाह बाबर के बीच लड़ा गया | मेड़ता ने महाराणा सांगा को हमेशा सहायता की थी | इस युद्ध में भी राव वीरमदेव अपने दोनों भाइयों के साथ युद्ध में शामिल हुए थे | रतनसिंह (मीरा के पिता) और रायमल ये दोनों मेड़तिया भाई युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए | युद्ध के मैदान में राणा सांगा घायल हुए | घायल अवस्था में उन्हें राव वीरमदेव की सहायता से सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया गया, लेकिन कुछ सरदारों ने राणा को विष देकर मार दिया | मीराबाई उस समय के अनेक ऐतिहासिक घटनाओं की साक्षी रही है |
मेवाड़ और मेड़ता वंशावली |
राणा विक्रमादित्य और राणा उदयसिंह दोनो मीराबाई के देवर थे | कुछ वर्ष पश्चात विक्रमादित्य गद्दी पर आये |
राणा विक्रमादित्य
राणा विक्रमादित्य के शासन काल में ही मीरा को अनेक कष्ट झेलने पड़े | विक्रमादित्य ने मीरा को मारने के लिए षड्यंत्र के जाल बुने | राणा ने जहर का कटोरा भगवान का चरणामृत कहकर मीरा के पास भेज दिया | मीरा ने उस विष को पी लिया | उस भयंकर विष को पचा जाना उनके लिए कठिन था | लेकिन मीरा पर उस विष का कोई प्रभाव नहीं हुआ | एक बार विक्रमादित्य ने दो काले साँप पिटारे में बंदकर भिजवाए | मीरा ने पिटारे खोलते ही साँप निकले | लेकिन देखते ही देखते जहरीले साँपों ने शालिग्राम का रूप ले लिया | प्राण छूट जाये लेकिन कीर्तन कैसे छूटता ? कहते हैं, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण मीराबाई की रक्षा करते थे | मीरा हर समय कृष्ण भक्ति में लीन रहा करती थी | मीरा को मारने हेतु कई असफल प्रयास किये गए लेकिन उनपर ऐसे षडयंत्रो का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था |
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कुंभश्याम मंदिर, चितौड़गढ़ (Image From Google Sours) |
कुंभश्याम मंदिर, चितौड़गढ़
चितौड़ स्थित कुंभश्याम मंदिर में हरिकथा करने वाली भजनमंडलियों में मीरा भी जाया करती थी | यहा साधु-संत और भक्तों के साथ-साथ सभी तरह के व्यक्ति आते थे | इसमें मेवाड़ के शत्रुओं के जासूस भेष बदलकर आया करते होंगे | इसलिए उन भजनमंडलियों और संतों को दुर्ग के मुख्य मार्ग से प्रवेश नहीं दिया जाता था | ये किले के पीछे के छोटे रास्ते से आया-जाया करते थे | उस समय मीरा की भक्ति और मीरा के साथ हुई चमत्कारी घटनाएँ ये एक चर्चा का विषय बन गया था | इसलिए जलाल उद्दीन अकबर की मीराबाई से मिलने की इच्छा हुई | किंतु अकबर और मीरा के परिवार के बीच राजनैतिक दुश्मनी थी | इसलिए अकबर तानसेन जी के साथ भेष बदलकर चितौड़ गए | उसी समय तानसेन जी ने मीरा समक्ष एक सुंदर पद गाया | उसके बाद दोनों चले आए | (अकबर और तानसेन का चितौड़ आना, इस बात पर इतिहासकारों में मतैक्य नहीं है)
मीरा का चितौड़ त्याग
मीरा के बड़े पिता राव वीरमदेव को जब महाराणा विक्रमादित्य के षडयंत्रों के बारे में सूचनाए मिली, तब उन्होंने मीरा को मेड़ते बुला लिया |
चितौड़ का दूसरा साका - वि. सं. १५९१
गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने एक विशाल सेना के साथ चितौड़ पर आक्रमण किया था | उस वक्त रानी कर्णावती के नेतृत्व में तेरा हजार वीरांगनाओं ने जौहर किया | यह निश्चित है, के दूसरे साके के समय मीराबाई चितौड़ में नहीं थी | क्योंकि इस जौहर में किले में रहने वाली स्त्रियों में से एक भी नहीं बची थी |
मीराबाई मेड़ता एक-दो वर्ष ही रह पाई थी क्योंकि जोधपुर के शासक राव मालदेव ने मेड़ता पर आक्रमण कर वीरमदेव से मेड़ता छीन लिया | फिर मीरा वृंदावन चली गई | वहा एक ब्रम्हचारी ने कहा - " मैं स्त्रियों का मुख नहीं देखता हूँ |" उस पर मीरा ने उत्तर दिया - "वाह महाराज ! अभी तक स्त्री पुरुष में ही उलझे हो, समदृष्टि नहीं हुए |"
मीराबाई भक्त होने के साथ साथ ज्ञानी और बुद्धिमान भी थी | उन्होंने भक्ति पदों की रचनाएँ की थी |
वृंदावन में कुछ दिन रहने के बाद मीरा द्वारिका गई |
मीरा को वापस लाने हेतु प्रयत्न
वीरमदेव को मेड़ता पुनः मिलते ही यह प्रयत्न आरंभ किया गया था | किन्तु राव वीरमदेव की अचानक मृत्यु हो जाने पर यह कार्य उनके ज्येष्ठ पुत्र राव जयमल ने किया | उन्होंने अपनी बहन को लाने हेतु मेड़ता से आदमी भेजे थे | उधर चितौड़ के राजसिंहासन पर भी महाराणा उदयसिंह (महाराणा प्रताप के पिता) विराजमान हो गए थे | इनके और राव जयमल के बहुत अच्छे संबंध थे | राणा उदयसिंह ने भी अपनी भाभी को चितौड़ लाने हेतु आदमी भेजे थे | किंतु मीरा न तो चितौड़ लौटी न ही मेड़ता |
मीराबाई की मृत्यु (वि. सं. १६०४)
मीराबाई ने अपने अंतिम दिन द्वारिका में व्यतीत किये | मीराबाई द्वारका के मंदिर में भजन कर रही थी | भजन की अंतिम पंक्ति गाने से पूर्व मीरा ने इकतारा अपनी सखी के हाथ में थमाया और गति हुई गर्भ गृह के भीतर चली गई और भगवान की मूर्ति में समा गई | इस घटना के बाद मीराबाई को नहीं देखा गया |
राजसी ठाठ-बाठ त्याग कर मीराबाई ने भक्तिमार्ग का चयन किया था और अपना जीवन भगवान को समर्पित कर दिया | इनके द्वारा रचित भजन आज भी उत्तर भारत में बड़े लोकप्रिय हैं |
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संदर्भ -
भक्तमाल - नाभादास
संदर्भ -
भक्तमाल - नाभादास
मीरा ग्रंथावली - डॉ. कल्याणसिंह शेखावत
मीराबाई का जीवनचरित्र - मुंशी देवीप्रसाद
मीरा की प्रेम साधना - डॉ. भुवनेश्वरनाथ मिश्र 'माधव'
मीरा चरित - सौभाग्य कुँवरि चुंडावत
जयमल वंश प्रकाश - ठाकुर गोपालसिंह राठोड
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मीराबाई का जीवनचरित्र - मुंशी देवीप्रसाद
मीरा की प्रेम साधना - डॉ. भुवनेश्वरनाथ मिश्र 'माधव'
मीरा चरित - सौभाग्य कुँवरि चुंडावत
जयमल वंश प्रकाश - ठाकुर गोपालसिंह राठोड
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पूजा लखामदे © 2021
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Bahot hi badhiya....
जवाब देंहटाएंAti sundar lekhan pooja
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