trishanku

त्रिशंकू

कहते हैं, अच्छे कर्म करोगे तो मृत्यु के बाद स्वर्ग मिलेगा | लेकिन यदि जीते जी स्वर्ग मिल जाए तो ? कुछ ऐसी ही इच्छा कर बैठा एक व्यक्ति | तो क्या मरे बिना ही उसे स्वर्ग प्राप्त हुआ ?.....


मृत्यु के बाद अपने पुण्य के बल से आत्मा स्वर्ग के दर्शन कर सकती है | लेकिन एक जीवित व्यक्ति जो मरने से पहले ही स्वर्ग जाना चाहता था | वो था राजा 'सत्यव्रत' | जो बाद में 'त्रिशंकु' के नाम से प्रसिद्ध हुआ | क्योंकि उसने अपने जीवन में ३ अपराध किये थे | एक तो अपने व्यवहार से पिता को असंतुष्ट किया | दुसरा गोहत्या की और तीसरा, उसका मांस भक्षण किया था | ये उसके जीवन के ३ शंकु थे | इसलिए वह 'त्रिशंकु' कहलाया | 

त्रिशंकु की इच्छा 
एक दिन त्रिशंकु को शरीर सहित स्वर्ग जाने की इच्छा हुई | अपनी इच्छा उसने कुलगुरु वशिष्ठ को बताई | वशिष्ठ जी ने इस बात को अशक्य कहकर मना कर दिया | वशिष्ठ के मना करने पर त्रिशंकु दक्षिण दिशा की ओर चला गया | वहा वशिष्ठ के पुत्र तपस्या कर रहे थे | 
त्रिशंकु ने तपस्वियों से कहा -
"आप मेरे लिए महायज्ञ का आयोजन कीजिए, जिससे मैं सशरीर स्वर्ग जा सकूँ | गुरु वशिष्ठ ने इस कार्य को मना करके असमर्थता प्रकट की | अब मैं आपका शरणागत हूँ |"
तब वशिष्ठ पुत्रों ने कहा -
"वशिष्ठ के अशक्य बताए गए कार्य को भला हम कैसे कर सकते हैं ? गुरु के त्याग करने पर तुम उनका अतिक्रमण कर दूसरे के पास कैसे आ गए ? राजन, अब तुम अपने नगर लौट जाओ |"
तब त्रिशंकु ने कहा -
"गुरु और गुरुपुत्र दोनों ने मेरा त्याग कर दिया | अब मैं किसी और के पास चला जाता हूँ |"
यह सुनकर गुरुपुत्र क्रोधित हुए | उन्होंने त्रिशंकु को चांडाल बन जाने का श्राप दे दिया | 

त्रिशंकु का चांडाल रूप 
वह रात बीतने के बाद त्रिशंकु चांडाल बन गया | उसका वस्त्र नीले रंग का हो गया | शरीर रुक्ष और माथे के बाल छोटे हो गए | चीता का भस्म उसके शरीर पर दिखने लगा | और उसके सारे आभूषण भी लोहमय बन गए | 

चाण्डालरूपी राजा को देखकर उसके सारे मंत्री, अनुयायी उसे छोड़कर चले गए | तब त्रिशंकु विश्वामित्र के पास चला गया | 

विश्वामित्र 
ये एक क्षत्रिय राजा थे | लेकिन उनके जीवन में एक घटना घटी | उस घटना के बाद उन्हें ऐसा लगने लगा की क्षत्रिय सामर्थ्य से बड़ा ब्रम्हतेज का सामर्थ्य है | इसलिए उन्होंने घोर तपस्या की और 'राजा विश्वामित्र' से 'महर्षि विश्वामित्र' बन गए | 

त्रिशंकु ने विश्वामित्र के पास जाकर अपना सारा वृत्तांत बताते हुए कहा -
"गुरुपुत्रों के श्राप के कारण मेरी यह स्थिति हुई है | स्वर्ग तो न जा सका लेकिन श्रापित चांडाल जरूर बन गया | अब मैं आपकी शरण में आया हूँ |"

उस समय वशिष्ठ और विश्वामित्र दोनों प्रतिस्पर्धी थे | इसलिए इस अवसर का लाभ उठाते हुए विश्वामित्र ने त्रिशंकु को अपनी शरण में ले लिया | और उसे सशरीर स्वर्ग भेजने का वचन भी दिया | 

त्रिशंकु के उद्देश्य को पूरा करने के लिए महायज्ञ का आरंभ किया गया | यज्ञ के लिए देशभर के सभी ऋत्विज और शिष्यों को आमंत्रित किया गया | सभी मुनि पधारे केवल वशिष्ठपुत्र नहीं आए और उन्होंने कहा -
"जिस यज्ञ का यजमान चांडाल है और याजक क्षत्रिय है, उस यज्ञ का हवि देवता और ऋषि कैसे ग्रहण कर सकते है |" इस बात से विश्वामित्र बहुत क्रोधित हुए | 

त्रिशंकु की स्वर्ग यात्रा 
विश्वामित्र जी ने सारे महर्षि और शिष्यों को यज्ञ आरंभ करने को कहा | तब सारे महर्षि आपस में जुट गए और कहने लगे "ये विश्वामित्र मुनि क्रोधी है, इनके वचन का पालन नहीं किया तो हमें श्राप दे देंगे |" ऐसा सोचकर उन्होंने यज्ञकर्मों का आरंभ किया | विश्वामित्र यज्ञ के याजक बने बाद में देवताओं का आवाहन किया गया | परंतु यज्ञ का हवि लेने के लिए एक भी देवता नहीं आया | तब क्रोधित हुए विश्वामित्र ने त्रिशंकु से कहा -"अब मैं अपने अर्जित तपसामर्थ्य से ही तुम्हे सशरीर स्वर्ग भेजूंगा |" विश्वामित्र के तपोबल से त्रिशंकु स्वर्ग की ओर जाने लगा | वह स्वर्ग तक पहुंचा तो स्वर्ग के देवताओं ने उसे निचे धकेल दिया | और देवराज इंद्र ने कहा - "हे त्रिशंको, तू स्वर्ग में रहनेयोग्य नहीं | तू गुरुश्राप से ग्रसित है इसलिए सिर निचा करके पृथ्वी पर गिर जा |" 
त्रिशंकु निचे गिरने लगा तो विश्वामित्र ने अपने तपोबल से उसे बीच में ही रोक लिया | और आकाश के दक्षिणी भाग में नए सप्तर्षि और नए नक्षत्रमंडल का निर्माण कर दिया | विश्वामित्र के तपोबल के कारण त्रिशंकु पृथ्वी पर नही गिरा | यह देखकर देवताओं ने विश्वामित्र से कहा - "ये गुरुश्राप से चांडाल बन गया है, इसने गोहत्या की है इसलिए ये स्वर्ग में रहनेयोग्य नहीं | साधारण मनुष्य अपने जीवित शरीर से स्वर्ग नहीं आ सकते, यह प्रकृति के नियमों के विपरीत हैं | और त्रिशंकु ने तो अपने जीवन में बड़े पाप किये है , इसलिए ये स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सकता |" 

तब विश्वामित्र ने देवताओं की बात समझी | लेकिन वे त्रिशंकु को दिए गए अपने वचन को तोडना नहीं चाहते थे | इसलिए उन्होंने कहा - "जब तक सृष्टि रहेगी तब तक अधोमुखी त्रिशंकु अपने नए स्वर्ग में सशरीर विद्यमान रहेंगे और त्रिशंकु के लिए बनाया गया नक्षत्रमंडल भी रहेगा |"

इसप्रकार त्रिशंकु पृथ्वी और स्वर्ग के मध्य में ही उलझकर रह गया | अतः वह गर्दन नीचे और पाँव ऊपर किये हुए आज भी लटका हुआ है | 
कुछ मान्यताओं के अनुसार ये पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्ध से दिखने वाला क्रक्स (Crux) है | 

कुछ हालातों में मनुष्य ना तो इधर का होता है और ना ही उधर का | बस परिस्थितियों के बीच में ही अटक जाता है | कभी कभी वो ना खुश होता है और ना ही दुखी | ऐसी विषम परिस्थितियों में जीने के भाव को प्रदर्शित करने के लिए भारत में 'त्रिशंकु के स्वर्ग' का शब्दप्रयोग किया जाता है | निराधार, लटका हुआ, झूलता हुआ जो है उसे  त्रिशंकु कहते है | 

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संदर्भ -
वाल्मीकि रामायण - बालकाण्ड 
श्रीमद् भागवत 
वायु पुराण 
विष्णु पुराण  
हरिवंश पुराण
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पूजा लखामदे © 2021 

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